प्रभु श्री ऋषभदेव भगवान की प्राचीन विचरण भूमियां और उनके वर्त्तमान स्थान
भूमिका
जैन दर्शन में तीर्थंकर भगवंतो का विहार और विचरण उनकी आध्यात्मिक साधना और धर्म-प्रसार का अभिन्न अंग रहा है। जैन आगमों के अनुसार, तीर्थंकर भगवंत वर्षा ऋतु के चार महीनों को छोड़कर वर्ष के शेष समय में निरंतर गतिशील रहते थे, जिससे न केवल उनकी साधना में उत्तरोत्तर प्रगति होती थी, बल्कि जनसामान्य को सत्य, अहिंसा और आत्मदर्शन के मार्ग का ज्ञान भी प्राप्त होता था। तीर्थंकरों के विहार से जहाँ अनेक स्थलों की पवित्रता बढ़ती थी, वहीं उनकी करुणामयी उपदेशों के प्रभाव से अनार्य समाज भी सभ्य और धर्म के मार्ग पर चलने को प्रेरित होता था।
प्रथम तीर्थंकर, श्री ऋषभदेव परमात्मा का जीवन और उनके विहार का वर्णन विभिन्न जैन ग्रंथों में उपलब्ध है, जो उनके विचरण स्थलों की जानकारी प्रदान करते हैं। तथापि, श्री ऋषभदेव के जीवन में जिन स्थानों का उल्लेख मिलता है, उनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है, जब इसे चौबीसवें तीर्थंकर, भगवान महावीर स्वामी के विचरण स्थलों से तुलना की जाए - वर्तमान में, प्रभु श्री महावीर के लगभग ७० विहार स्थलों के नाम विविध ग्रंथो में विस्तृत रूप से मिलते हैं[1], जबकि श्री ऋषभदेव भगवान के विहार स्थलों का उल्लेख मात्र २० स्थानों तक ही सीमित है।
प्राचीन श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा के ग्रंथो के आधार पर यह शोध पत्र उन स्थानों पर प्रकाश डालने का प्रयास करेगा, जहाँ श्री ऋषभदेव भगवान ने अपने जीवनकाल में संभावित रूप से विहार किया था।
शोधपत्र सामग्री एवं सीमाएं
इस शोध पत्र में श्री ऋषभदेव भगवान की विचरण भूमियों के संदर्भ में प्राचीन से मध्यकाल तक के जैनाचार्यों द्वारा रचित ग्रंथों को शामिल किया गया है, जो उनके जीवन-चरित्र का महत्वपूर्ण स्रोत हैं। इसमें आगम साहित्य के श्री आवश्यक निर्युक्ति सूत्र, श्री उत्तराध्ययन सूत्र, और श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के साथ-साथ श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी रचित श्री कल्पसूत्र (ई.पू. तीसरी शताब्दी) भी शामिल है।
अन्य उल्लेखनीय ग्रंथों में आचार्य श्री विमलसूरी रचित श्री पउमचरियं (ई. १-३ शताब्दी), श्री संघदास गणि रचित श्री वासुदेवहिंडी (ई. ५ वीं शताब्दी), दिगंबराचार्य श्री जिनसेन रचित श्री आदिपुराण (ई. ९ वीं शताब्दी), कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य रचित श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र (ई. १२ वीं शताब्दी), और आचार्य श्री धनेश्वरसूरी रचित श्री शत्रुंजय महात्म्य (ई. १४ वीं शताब्दी) शामिल हैं। इस शोध का उद्देश्य इन प्राचीन स्रोतों के आधार पर भगवान ऋषभदेव के पवित्र स्थलों की संभावित सूची प्रस्तुत करना है, जिस पर और गहन शोध की आवश्यकता हो सकती है।
1. विनीता नगरी - अयोध्या
प्रभु श्री ऋषभदेव के च्यवन (गर्भधारण), जन्म और दीक्षा कल्याणक विनीता नगरी की पवित्र भूमि पर संपन्न हुए थे। उनके राज्याभिषेक के समय में दिव्य वस्त्र और अलंकारों से विभूषित प्रभु के मस्तक पर जल डालना उचित नहीं समझकर युगलिकोंने कमल पत्र में लाया हुआ जल प्रभु के पैरों पर समर्पित कर दिया। युगलिकों के इस विनय को देख कर इंद्र ने नगरी का नाम "विनिता" रखा। [2] इस नगरी को 'विनिता' के अलावा अयोध्या, साकेत, इक्ष्वाकुभूमि, कोशल, कोशला, अवध्या, और रामपुरी जैसे अन्य नामों से भी जाना जाता है।[3] प्राचीन काल में यह नगरी श्री विमलवाहन और श्री नाभिराज आदि कुलकरों की जन्म और राज्यभूमि रही है, और यहीं से इक्ष्वाकु वंश का प्रारंभ हुआ था। विनीता नगरी को ज्ञान, संस्कार और आध्यात्मिकता का केंद्र माना जाता है, क्योंकि यहीं से प्रभु श्री ऋषभदेव ने कलाओं, आजीविका के साधनों, शिल्प, भाषा, गणित और लिपि का ज्ञान दिया था।
विनीता नगरी न केवल श्री ऋषभदेव के तीन कल्याणकों की भूमि है, बल्कि यहाँ चार अन्य तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणक भी संपन्न हुए हैं। दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ, चौथे तीर्थंकर श्री अभिनंदनस्वामी, पाँचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ और चौदहवें तीर्थंकर श्री अनंतनाथ के च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान भी इसी नगरी में संपन्न हुए थे। इस प्रकार, कुल मिलाकर विनीता नगरी उन्नीस कल्याणकों की पावन भूमि है, जो इसे जैन धर्म की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण बनाती है। यहाँ चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का भी विचरण हुआ था, और उनके नौवें गणधर श्री अचलभ्राता की जन्मभूमि भी यही है। दिगंबर संप्रदाय की मान्यता के अनुसार, विनीता नगरी को शाश्वत भूमि माना जाता है।[4]
यह नगरी न केवल जैन धर्म, बल्कि वैदिक और बौद्ध दर्शन की कई ऐतिहासिक घटनाओं और महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्वों से भी जुड़ी हुई है। श्री रामचंद्रजी की जन्म और राज्यभूमि होने के कारण अयोध्या को रामायण काल से ही एक पवित्र और ऐतिहासिक स्थान के रूप में प्रतिष्ठा मिली है।
श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में विनीता नगरी का वर्णन विनीता नगरी की ऐश्वर्यपूर्ण और आध्यात्मिक भव्यता को उजागर करता है, जो न केवल भौतिक समृद्धि बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व की दृष्टि से भी अद्वितीय है। इस ग्रंथ के अनुसार, कुबेर ने विनीता नगरी का निर्माण बारह योजन लंबी और नौ योजन चौड़ी भूमि पर किया और इसे "अयोध्या" नाम भी दिया।
श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में विनीता नगरी का वर्णन विनीता नगरी की ऐश्वर्यपूर्ण और आध्यात्मिक भव्यता को उजागर करता है, जो न केवल भौतिक समृद्धि बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व की दृष्टि से भी अद्वितीय है। इस ग्रंथ के अनुसार, कुबेर ने विनीता नगरी का निर्माण बारह योजन लंबी और नौ योजन चौड़ी भूमि पर किया और इसे "अयोध्या" नाम भी दिया।
- यह नगरी अपनी भव्यता और ऐश्वर्य में अनुपम थी, जिसे कुबेर ने वस्त्र, आभूषण और धन-धान्य से समृद्ध किया था।
- विनीता नगरी के महलों की भव्यता अद्वितीय थी; यहाँ के महल हीरे, इन्द्रनील, और मणियों से सजे हुए थे। नगरी की ऊँची अट्टालिकाएँ सोने की बनी थीं, जिनकी ऊँचाई मेरु पर्वत जैसी प्रतीत होती थी, और ये पताकाओं से सुसज्जित थीं।
- इसके किले की दीवारें माणिक्य के छोटे-छोटे स्तंभों से सजाई गई थीं, जो दर्पण की तरह चमकती थीं, जिससे पूरी नगरी की शोभा और बढ़ जाती थी।
- विनीता नगरी के हर घर के आंगन में मोतियों से बने स्वस्तिक चिह्न होते थे, जिनसे बच्चे खेलते थे ।
- यहाँ के व्यापारी इतने धनी थे कि उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था जैसे स्वयं धन के देवता कुबेर ही व्यापार करने आए हों।
- रात्रि के समय, चंद्रकांत मणियों से बहता पानी नगरी की धूल को स्थिर कर देता था, जिससे वातावरण शीतल और पवित्र हो जाता था।
- अयोध्या के कुएं, सरोवर, और तालाब अमृत समान शीतल और स्वच्छ जल से भरपूर थे, जिनकी सुंदरता नागलोक की अपूर्व छवि को भी प्रतिस्पर्धा देती थी।[5]
अयोध्या : जैन पुरातत्व |
विनीता - वर्तमान तीर्थ भूमि: वर्तमान में विनीता नगरी को अयोध्या के नाम से जाना जाता है, जो उत्तर प्रदेश राज्य के फैज़ाबाद जिले में सरयू नदी के तट पर स्थित है। यहाँ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी की जैन तीर्थंकर की टेराकोटा प्रतिमा खुदाई में प्राप्त हुई है[7] और भूतपूर्व बाबरी मस्जिद के स्थान पर जैन मंदिर के कई अवशेष प्राप्त हुए हैं ।[8] कटरा मोहल्ले में स्थित श्वेताम्बर जिनालय प्राचीन नाभिराजा के मंदिर की भूमि पर स्थित है और वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत भव्य है। जिनालय में दो मंजिलों के साथ भोंयरा, दो खंड, तीन रंगमंडप और चार गुम्बद शामिल हैं, जो इसकी अद्वितीय शिल्पकला को दर्शाते हैं। मंदिर के भीतर समवसरण की रचना, १९ प्राचीन जिनबिम्ब और ३६ जोड़ी प्राचीन चरण पादुकाएँ शामिल हैं। मूलनायक के रूप में श्री अजितनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जिसे ई.स. १८२१ में खरतरगच्छीय आचार्य जिनहर्षसूरिश्वरजी महाराज द्वारा स्थापित किया गया था। इसके अलावा, इस मंदिर में श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा भी है, जो ई.स. १६१५ में अचलगच्छीय आचार्य श्री कल्याणसागरसूरिश्वरजी के उपदेश पर कुँवरपाल और सोनपाल लोढ़ा द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी। इस जिनालय में एक विशेष आकर्षण श्री अभिनंदन स्वामी भगवान की श्याम पाषाण में बनी प्रतिमा है, जो ई. १०वीं शताब्दी की है। इस प्रतिमा की लाक्षणिकता देख कर इतिहासकार इसे एक बौद्ध प्रतिमा मानते हैं।[9]
अयोध्या : वर्तमान तीर्थ भूमि |
2. श्री ऋषभदेव भगवान द्वारा प्रजा के कल्याण के उपाय के स्मरण से इंद्र द्वारा ५२ देशों की रचना
९वीं शताब्दी में दिगम्बराचार्य श्री जिनसेन द्वारा रचित "आदिपुराण" में भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रजा के कल्याण के लिए किए गए उपायों का विस्तृत वर्णन मिलता है। राज्यावस्था में श्री ऋषभदेव राजा ने दूर दूर तक के प्रदेशों की जंघा बल से पदयात्रा कर जन-जन के मन में यह विचारज्योति प्रज्वलित की, कि मनुष्य को सतत गतिमान् रहना चाहिए, एक स्थान से द्वितीय स्थान पर वस्तुओं का आयात-निर्यात कर प्रजा के जीवन में सुख का संचार करना चाहिए ।[10]
आदिपुराण के अनुसार, काल के प्रभाव से भोगभूमि का अंत होकर कर्मभूमि का प्रारंभ हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भगवान ऋषभदेव ने पूर्वापर विदेहक्षेत्रों के समान छह कर्म, वर्णाश्रम, और ग्राम-नगर आदि की व्यवस्था का विचार किया। इसी उद्देश्य के तहत, इंद्र ने भगवान की आज्ञानुसार सबसे पहले जिनमंदिर की रचना की और इसके पश्चात् चारों दिशाओं में कोसल समेत छोटे-बड़े अनेक देशों की स्थापना की जो प्रजा की सुख-समृद्धि और प्रशासनिक व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए थे।[11]
श्री ऋषभदेव भगवान द्वारा प्रजा के कल्याण के उपाय के स्मरण से इंद्र द्वारा ५२ देशों की रचना |
इन राज्यों की सीमाओं का निर्धारण मुख्यतः नदियों के आधार पर किया गया था, जो भौगोलिक विभाजन को स्पष्ट रूप से रेखांकित करते थे। आदिपुराण में वर्णित इन राज्यों में से वर्तमान में निम्नलिखित राज्यों के स्थानों की पहचान की जा चुकी है, जो प्राचीन काल की भौगोलिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के अनुरूप हैं -
3. प्रभु श्री ऋषभदेव की दीक्षा के पश्चात, आर्य - अनार्य देशों में परमात्मा का विचरण
श्री आवश्यक निर्युक्ति सूत्र में वर्णित विवरण के अनुसार, भगवान श्री ऋषभदेव ने दीक्षा के पश्चात् आर्य और अनार्य देशों में व्यापक विचरण किया। सुपात्र दान -गोचरी की विधि से अपरिचित भावुक मानव भगवान् को निहारकर भक्ति-भावना से विभोर होकर अपनी रूपवती कन्याओं को, बढ़िया वस्त्रों को, अमूल्य आभूषणों को और गज, तुरङ्ग, रथ, सिंहासन आदि वस्तुओं को प्रस्तुत करते। इस तरह भगवान ने ४०० दिनों तक निराहार रह कर आर्य -अनार्य भूमिओं में विहार किया। हालांकि, ग्रंथों में इन ग्रामों या देशों के नाम अथवा उनके विस्तृत विवरण का उल्लेख नहीं मिलता है। [12]
4. गजपुर नगरी - हस्तिनापुर
४०० दिन के निर्जला उपवास और निरंतर विहार के पश्चात, भगवान श्री ऋषभदेव का अक्षय तृतीया के पावन दिन पर गजपुर नगरी में आगमन हुआ। श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में प्रभु श्री ऋषभदेव के गजपुर नगरी में आगमन का अत्यंत सुन्दर और भावपूर्ण वर्णन मिलता है। इस प्रसंग में युवराज श्री श्रेयांसकुमार के अनुचर द्वारा प्रभु के विहार का मनोहारी दृश्य प्रस्तुत किया गया है –
“जिन्होंने समस्त सावदय वस्तुओं का त्याग कर अष्ट कर्म रूप को शुष्क करने के लिए,
ग्रीष्मकालीन रौद्र की भाँति तप स्वीकार किया है,
क्षुधार्त-तृषार्त वे ही प्रभु ऋषभदेव ममत्वहोन बने अपने पैरों से भूमि को पवित्र करते हुए विहार कर रहे हैं,
वे न तो रौद्रताप से आकुल होते हैं न छाया से आनन्दित, वे तो पर्वत की भाँति दोनों में ही समभावी रहते हैं,
वज्र शरीर की तरह वे न तो शीत से विरक्त होते हैं न ग्रीष्म पर आसक्त,
संसार रूपी हस्ती के लिए केशरी तुल्य प्रभु युग मात्र अर्थात् चार हाथ प्रमाण दृष्टि रखकर,
किसी चींटी को भी जिससे कष्ट न हो इस तरह पग धरते हुए चलते हैं”
इस संवाद को सुनते ही युवराज श्रेयांस दौड़कर प्रभु के सन्मुख गए और उनके चरण कमलो पर गिर पड़े; उठकर तीन प्रदक्षिणा दी और जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति से निर्दोष इक्षुरस (गन्ने के रस) से प्रभु का पारणा करवाया।[13] यह अवसर न केवल भगवान के लंबे तप और संयम की पूर्णता का प्रतीक है, बल्कि जैन धर्म में सुपात्र दान की परंपरा के प्रारंभ का भी बोधक है। प्रभु के पारणा की भूमि पर श्री श्रेयांसकुमार ने रत्नमय पीठिका (स्तूप) और प्रभु के चरण पादुका की स्थापना की।[14]
गजपुर नगरी, को विभिन्न नामों से जाना गया है—गयपुर, हत्थिणऊर, हत्थिणाऊर, हत्थिणापुर, हस्तिनीपुर, हस्तिनपुर, और हस्तिनापुर। प्रभु श्री ऋषभदेव के पारणा की अलौकिक घटना के पश्चात यह नगरी १२ कल्याणकों की पवित्र भूमि बन गई, जिसमें श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ, और श्री अरनाथ भगवान के चार-चार कल्याणक संपन्न हुए। गजपुर नगरी का ऐतिहासिक महत्व न केवल तीर्थंकरों के कल्याणकों से जुड़ा है, बल्कि यह प्राचीनकाल के १२ चक्रवर्ती राजाओं में से ६ की राजधानी भी रही है। इन चक्रवर्ती राजाओं में श्री सनत्कुमार, श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ, श्री अरनाथ, श्री भूम, और श्री महापद्म का उल्लेख विशेष रूप से मिलता है। इस भूमि पर श्री मल्लिनाथ भगवान ने ६ राजाओं को दीक्षा दी थी। इसके अतिरिक्त, श्री मुनिसुव्रत स्वामी ने यहाँ सात करोड़ स्वर्ण मुद्राओं के स्वामी गंगदत्त सेठ और कार्तिकस्वामी को दीक्षा प्रदान की थी। यह नगरी श्री पार्श्वनाथ भगवान की विहारभूमि रही है और श्री महावीर स्वामी ने यहाँ पोट्टील और शिवराज को दीक्षा दी थी।
हस्तिनापुर नगरी का उल्लेख जैन तीर्थकल्पों और चैत्यपरिपाटीयों में एक महत्वपूर्ण तीर्थ के रूप में बार-बार मिलता है। आचार्य श्री नंदिशेणसूरी द्वारा रचित "अजितशांति" स्तवन में "कुरूजणवय-हत्थिणाउर-" गाथा के माध्यम से हस्तिनापुर की समृद्धि और भव्यता का वर्णन मिलता है, जो प्राचीनकाल की इस नगरी की महानता को दर्शाता है। १४वीं शताब्दी में, आचार्य श्री जिनप्रभसूरी द्वारा रचित "विविधतीर्थकल्प" में भी हस्तिनापुर का उल्लेख विशेष रूप से आता है - इसमें भागीरथी नदी के तट पर स्थित पांच सुंदर मंदिरों का विवरण दिया गया है, जिनमें श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ, श्री अरनाथ, श्री मल्लिनाथ भगवान और अंबा देवी के मंदिर सम्मिलित हैं। इसके पश्चात १७वीं शताब्दी में, श्री विजयसागरजी द्वारा हस्तिनापुर के पांच स्तूपों और पाँच जिनप्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है एवं श्री जिनचंद्रसूरी ने अपने विहारपत्र में ४ स्तूपों का उल्लेख किया है और १८वीं शताब्दी में, श्री सौभाग्यविजयजी ने अपने ग्रंथों में तीन स्तूपों का उल्लेख किया है, जो यह इंगित करता है कि कालक्रम में हस्तिनापुर के स्तूपों का लोप हुआ होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि समय के साथ यहाँ स्थित प्राचीन स्थापत्य और संरचनाएँ नष्ट हो गईं, लेकिन उनके अवशेषों और उल्लेखों के माध्यम से इस तीर्थस्थान की प्राचीन महत्ता आज भी विद्यमान है।[15]
हस्तिनापुर : वर्तमान तीर्थ भूमि: हस्तिनापुर, वर्तमान में उत्तर प्रदेश के मेरठ से ३७ किलोमीटर दूर स्थित है। आज यहाँ पाँच श्वेताम्बर जिनालयों का अस्तित्व है.
- श्री श्रेयांसकुमार द्वारा पारणा के मूल स्थान पर स्थित निशियाँजी तथा प्राचीन स्तूप यहाँ की प्राचीनता का प्रतीक हैं और यहाँ श्री ऋषभदेव भगवान के प्राचीन पगलिए बिराजमान है.
- श्री शांतिनाथ प्रभु जिनालय: यह जिनालय के मूलनायक की प्रतिष्ठा आचार्य श्री हिरविजयसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्री शांतिचंद्र उपाध्याय द्वारा ई.सं. १५८९ में की गई थी
- पारणा और कल्याणक मंदिर: यहाँ श्री श्रेयांसकुमार द्वारा श्री ऋषभदेव के पारणा का दृश्य प्रतिमा के रूप में स्थापित है जिसकी प्रतिष्ठा, आचार्य श्री इंद्रदिन्नसूरीश्वरजी महाराज द्वारा ई.सं. १९७८ में की गई थी
- अष्टापद जिनालय: अष्टापद गिरी की रचना को दर्शाने वाला १५१ फुट ऊँचा यह जिनालय जैन स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है। इसकी प्रतिष्ठा आचार्य श्री नित्यानंदसूरीश्वरजी महाराज द्वारा ई.सं. २००९ में की गई थी।
- श्री अम्बिका देवी की प्रतिमा: श्री विविधतीर्थकल्प में उल्लेखित श्री अम्बिका देवी की प्राचीन प्रतिमा लगभग ४० वर्ष पूर्व खुदाई के दौरान प्राप्त हुई थी, जो अब दिगंबर मंदिर में स्थापित है।
हस्तिनापुर : वर्तमान तीर्थ भूमि |
5. तक्षशिला नगरी
गजपुर नगरी से विहार करते हुए, प्रभु श्री ऋषभदेव संध्या के समय अपने पुत्र बाहुबली के राज्य, तक्षशिला पहुँचे। भगवान ने नगर के बाहर स्थित एक उद्यान में ध्यानस्थ होकर रात्रि व्यतीत की। उद्यानपाल ने भगवान ऋषभदेव के तक्षशिला आगमन की सूचना राजा बाहुबली को दी और इस समाचार से प्रसन्न होकर बाहुबली ने सम्पूर्ण नगर को सजाने का आदेश दिया। उन्होंने निश्चय किया कि सुबह होते ही वे भगवान ऋषभदेव के दर्शन करेंगे और उनकी वंदना करेंगे।
हालाँकि, सुबह होते ही भगवान ऋषभदेव ने तक्षशिला से अन्यत्र विहार किया। बाहुबली जब प्रभु के दर्शन के लिए उद्यान पहुँचे, तो उन्हें पता चला कि भगवान वहाँ से प्रस्थान कर चुके हैं। इस घटना से बाहुबली अत्यंत दुखी हो गए और उन्होंने प्रभु दर्शन न हो पाने के कारण गहरा विलाप किया। बाहुबली ने प्रभु के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए उस स्थान पर भगवान के चरण चिह्न की पूजा की, जहाँ वे ध्यानस्थ थे। उन चरण चिह्नों को सुरक्षित रखने और उनकी महिमा को चिरस्थायी बनाने के लिए बाहुबली ने एक भव्य रत्नमय धर्मचक्र की स्थापना की, जो आठ योजन दीर्घ और चार योजन ऊँचा था ।[16]
तक्षशिला नगरी - इतिहास एवं वर्तमान : तक्षशिला नगर, वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के रावलपिंडी जिले में "तक्षिला" और “सिरकप” नाम से प्रख्यात है। बाहुबली द्वारा स्थापित धर्मचक्र के अवशेष वर्तमान में 'बौद्ध धर्मराजिका स्तूप' के नाम से प्रख्यात हैं। इतिहास में तक्षशिला की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए, सम्राट सम्प्रति ने अपने पिताजी कुणाल की धर्म आराधना के लिए तक्षशिला इसा पूर्व दूसरी सदी में एक जिनमंदिर का निर्माण कराया। वर्तमान में, इस जिनमंदिर के अवशेष 'कुणाल स्तूप' के नाम से प्रख्यात हैं। तक्षशिला में अनेक जैन धरोहरों के अवशेष आज भी विद्यमान हैं, जो जैन संस्कृति की समृद्धि और इतिहास को दर्शाते हैं।
तक्षशिला नगरी - वर्तमान परिस्थिति |
तक्षशिला से विहार कर के प्रभु श्री ऋषभदेव ने अनार्य भूमिओ में विचरण किया ऐसा उल्लेख हमें श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में प्राप्त होता है परन्तु वह विहार क्षेत्र के नाम हमें श्री आवश्यक निर्युक्ति सूत्र में प्राप्त होते हैं। श्री आवश्यक निर्युक्ति सूत्र के अनुसार, जैसे सूर्य अपने प्रकाश से कमलों को खिलाता है, वैसे ही भगवान ने बहली, अम्बड़, इल्ल, सुवर्णभूमि, जोगग, पल्लव और म्लेच्छ देशों के अनार्य लोगों को अपने दर्शन मात्र से भद्र बना दिया।[17] यह वर्णन न केवल प्रभु के प्रभाव को दर्शाता है, बल्कि उनके व्यापक विहार क्षेत्र को भी उजागर करता है।
- बहली: वर्तमान अफगानिस्तान के उत्तरवर्ती क्षेत्र प्राचीन बहली के भाग थे।
- अम्बड़: यह क्षेत्र वर्तमान ईरान में स्थित है।
- सुवर्णभूमि: म्यान्मार की भूमि को प्राचीन काल में सुवर्णभूमि के नाम से जाना जाता था।
- पल्लव: वर्तमान में दक्षिण भारत का कांची पल्लव देश का भाग था।
- इल्ल देश और जोगग देश के वर्तमान स्थान उपलब्ध नहीं है
यहाँ उल्लेखनीय है कि जैन ग्रंथों के अनुसार, भगवान श्री ऋषभदेव का अनार्य भूमि में विहार उपसर्ग रहित था। हालांकि, वैदिक ग्रंथ श्री भागवत पुराण में वर्णित है कि श्रमण बनने के बाद, अज्ञ व्यक्तियों ने भगवान श्री ऋषभदेव को विभिन्न दारुण कष्ट प्रदान किए।[18] इस प्रकार, भागवत का वर्णन श्रमण भगवान महावीर के अनार्य देशों में विहरण के समान है।
7. पुरिमताल शाखानगरी
अनेक वर्षों के विहार के पश्चात, प्रभु श्री ऋषभदेव का अयोध्या के शाखानगर, पुरिमताल में आगमन हुआ। शाखानगरी के बाहर प्रभु ने शकटमुख उद्यान में ध्यानस्थ हुए - उस समय के दौरान प्रभु ने समस्त पदार्थों, उनकी त्रैकालिक अवस्थाओं और उनके गूढ़ रहस्यों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया; अहिंसा, संयम और तप की महासाधना करके चार घाती कर्मों का क्षय किया। इस महासाधना की अंतिम सिद्धि का समय निकट आ रहा था, तब प्रभु ने शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया; उनका मन निष्प्रकंप हो गया। उत्तरोत्तर विशुद्ध शुक्ल ध्यान में प्रविष्ट होते हुए, प्रभु ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अंतऱाय—इन चार घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्रकट किया।[19]
यह क्षण विशेष रूप से महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह अवसर्पिणी काल के पहले समवसरण की रचना हुई, गणधर श्री पुंडरिक स्वामी की दीक्षा हुई, पहले चतुर्विध संघ की स्थापना हुई और प्रथम द्वादशांगी की रचना हुई। प्रभु की इस दिव्य अवस्था को देखते हुए, मरुदेवी माता ने प्रभु के अतिशय सहित ऐश्वर्य के दर्शन किए और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान और निर्वाण की प्राप्ति की, जिससे वह इस अवसर्पिणी काल के पहले मोक्षगामी बने।[20]
इस विरल कल्याणक के पश्चात भी पुरिमताल का व्यापक इतिहास प्राप्त होता था। प्रभु श्री महावीर ने यहाँ विचरण किया था और उनका समवसरण भी रचा गया था। यह स्थल न केवल आचार्य श्री अर्णीकापुत्र की केवलज्ञान और मोक्ष की भूमि है, बल्कि यहाँ श्री पुष्पचूला साध्वी को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यहाँ पर तीन पवित्र नदियों—गंगा, यमुना और सरस्वती का "त्रिवेणी संगम" है, जो इस स्थान को धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण बनाता है। श्री "विविधतीर्थकल्प" के अनुसार, १४ वीं शताब्दी में यहाँ श्री शीतलनाथ भगवान का मंदिर विद्यमान था । इसके अलावा, प्राचीन तीर्थमालाओं के अनुसार, यहाँ वटवृक्ष के नीचे श्री आदिश्वर भगवान की पादुकाएँ स्थापित की गई थीं। पं. हंससोम विजयजी द्वारा १५वी शताब्दी में इन चरणों के दर्शन किए थे ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है ।[21]
वर्तमान पुरिमताल - प्रयागराज: प्राचीन पूरिमताल की भूमि, वर्तमान में उत्तर प्रदेश राज्य के प्रयागराज (अल्लाहाबाद) में स्थित है। प्रयागराज किले के पातालपुरी मंदिर के अंदर स्थित अक्षयवट का वृक्ष है, जिसके नीचे प्रभु श्री ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यहां एक छोटी देहरी के अंदर प्रभु के चरणचिह्न आज भी प्रतिष्ठित हैं। इस भूमि का महत्व वैदिक परंपरा में भी उतना ही है, क्योंकि यहाँ श्री राम, लक्ष्मण और सीता ने अपने वनवास के दौरान विश्राम किया था। इस प्रकार, पूरिमताल का यह क्षेत्र जैन और वैदिक दोनों धर्मों के लिए पूजनीय बन गया है। यह स्थान भारतीय सेना की छावनी के अंतर्गत आता है, जिसके कारण यहाँ दर्शन और पूजन के लिए विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, "बाई का बाग" क्षेत्र में स्थित श्वेताम्बर जिनालय में श्री आदिनाथ भगवान की प्राचीन प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जो अन्य तीर्थ से यहाँ लाई गई थी और इसकी सौंदर्य और दिव्यता अद्वितीय है। प्रयागराज और इसके आसपास के क्षेत्र से प्राप्त जैन अवशेष और प्रतिमाएं आज भी अल्लाहाबाद म्यूज़ियम में प्रदर्शित हैं, जो पूरिमताल की समृद्ध जैन धरोहर को दर्शाती हैं।
वर्तमान पुरिमताल तीर्थ - प्रयागराज |
8. तीर्थंकर अवस्था में प्रभु का विचरण
श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में, केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात भगवान ऋषभदेव के विहार का अत्यंत सुन्दर और प्रेरणादायक निम्नलिखित विवरण मिलता है[22]-
स्वामी ऋषभदेव ने अपने प्रमुख शिष्य गणधर श्री पुण्डरीक स्वामी सहित प्रव्रजन करते हुए पृथ्वी को पवित्र किया। उन्होंने कौशल देश के निवासियों को धर्म का उपदेश देकर पुत्रवत् धर्म में निपुण बनाया। इसके बाद, उन्होंने मगध देश के लोगों को तप और साधना में प्रवीण बनाकर उन्हें धर्म की गहराइयों से परिचित कराया। भगवान का मार्गदर्शन ऐसा था जैसे सूर्य की किरणें कमल को खिलाती हैं; उन्होंने काशी देश के निवासियों को धर्म के प्रकाश से आलोकित किया, मानो चन्द्रमा समुद्र को शीतलता प्रदान कर रहा हो। आगे, भगवान ऋषभदेव ने दशार्ण देश के लोगों को आनंदित किया, मोह में डूबे हुए लोगों को जैसे चेतना का संचार कर रहे हों, इसी तरह चेदी देश के निवासियों को जागरूक किया। धर्म के पथ पर अग्रसर करने की उनकी क्षमता वलीवर्द के समान थी, जिसने मालव देश के लोगों को धर्म के बोझ को वहन करने के लिए सशक्त बनाया। भगवान ऋषभदेव ने गुर्जर देशवासियों को जैसे देवताओं की तरह पापरहित कर दिया और सौराष्ट्र देश के निवासियों को वैद्य की भांति धर्म के प्रति दक्ष और सजग बनाया। अंततः, महात्मा ऋषभदेव ने अपने इस व्यापक धर्म प्रचार के साथ पावन शत्रुञ्जय पर्वत पर पदार्पण किया, जहां उनकी उपस्थिति ने इस क्षेत्र को भी आध्यात्मिकता से आलोकित कर दिया।
यह वर्णन भगवान ऋषभदेव के विहार के व्यापक और गहन प्रभाव को दर्शाता है, जो केवल एक यात्रा मात्र नहीं, बल्कि धर्म, तप, और आध्यात्मिक जागृति का संचार था, जिसने विभिन्न प्रदेशों के निवासियों को धर्ममार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। इस विवरण में शत्रुंजय पर्वत को छोड़कर आठ प्रमुख देशों के नाम प्राप्त होते हैं, जिनके आधुनिक स्थान निम्नलिखित हैं:
- कौशल देश: यह क्षेत्र वर्तमान में उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जिसमें अयोध्या और श्रावस्ती जैसे ऐतिहासिक नगर शामिल हैं।
- काशी देश: आधुनिक उत्तर प्रदेश में स्थित, काशी का केंद्र वाराणसी है।
- मगध देश: वर्तमान में दक्षिण बिहार के रूप में पहचाने जाने वाला यह क्षेत्र, प्राचीन काल में ज्ञान, धर्म और राजनीति का केंद्र था।
- दशार्ण देश: मध्य प्रदेश में धसान और बेतवा नदियों के बीच स्थित यह क्षेत्र प्राचीन दशार्ण देश के रूप में जाना जाता था।
- चेदी देश: चेदी का प्राचीन क्षेत्र वर्तमान मध्य प्रदेश के चंदेरी और उसके आसपास स्थित है।
- मालव देश: यह क्षेत्र आधुनिक मध्य प्रदेश के पश्चिमी और उत्तरी भागों में स्थित है। प्राचीन काल में यह मालव जनपद के नाम से प्रसिद्ध था।
- गुर्जर देश: वर्तमान में यह क्षेत्र उत्तर गुजरात के रूप में जाना जाता है।
- सौराष्ट्र देश: यह गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र का प्राचीन नाम है।
9. शत्रुंजय गिरिराज
अनेक देशों की भूमि को पवित्र करने के बाद भगवान श्री ऋषभदेव का शत्रुंजय पर्वत पर पदार्पण होता है। यहाँ उल्लेखनीय है की प्राचीन आगम ग्रंथों में इस पर्वत पर भगवान ऋषभदेव के आगमन का कोई उल्लेख नहीं मिलता[23], और इसका सर्वप्रथम प्रमाण हमें १२ वीं शताब्दी के श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में मिलता है। एक और असामान्य बात है की श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र और श्री शत्रुंजय महात्म्य आदि में श्री ऋषभदेव भगवान द्वारा केवल एक ही बार शत्रुंजय पर पधारने का उल्लेख मिलता है पर वर्तमान समय में प्रभु, पूर्व ९९ बार[24] शत्रुंजय पर्वत पर पधारे थे ऐसी मान्यता प्रचलित है ।
श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में शत्रुंजय गिरिराज का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है जिसमे-
- पर्वत की परिधि मूल से ५० योजन, शिखर से १० योजन, और ऊँचाई में ८ योजन थी।
- पर्वत का शिखर सुवर्ण, रौप्य, और रत्नों से आभायुक्त था, जो उसकी अलौकिक शोभा को दर्शाता था।
- शत्रुंजय की सुंदरता को और बढ़ाने वाले श्वेत बादल पर्वत को एक अद्भुत सफेद आभा प्रदान कर रहे थे, जबकि ऊपरी हिस्से पर केतकी के वृक्षों से गिरते हुए सफेद फूल उसकी रमणीयता को और बढ़ा रहे थे।
- गिरिराज पर नारियल, आम, और हरे-भरे वृक्षों का विस्तार था, जिनके नीचे हिरण विश्राम करते दिखाई देते थे।
- पर्वत के विभिन्न भागों में भील स्त्रियाँ मधुर गीत गा रही थीं, जिससे वातावरण में संगीत की मिठास घुली हुई थी।
- कहीं द्राक्षासव, कहीं खजुरासव और कहीं ताल की मदिरा पान करने वाली भील रमणियाँ श्रासवासक्तों की मण्डली रच रही थीं ।
- पर्वत पर केतकी, चमेली, अशोक, कदंब, और अन्य फूलों की सुगंध और पराग के कारण चट्टानें रंग-बिरंगी हो गई थीं, जो शत्रुंजय की प्राकृतिक सुंदरता को एक अनोखी छवि प्रदान करती थीं।[25]
श्री ऋषभदेव प्रभु की आज्ञा अनुसार, शत्रुंजय पर्वत पर पुण्डरीक गणधर ने कोटि श्रमणों सहित पहले सर्व प्रकार के सूक्ष्म और बादर अतिचारों की आलोचना की फिर अतिशुद्धि के लिए पुनः महाव्रतों का आरोपण किया और दुष्कर जीवन का अन्तिम अनशन व्रत ग्रहण किया । क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हुए पुण्डरीक गणधर और अन्य कोटि साधुओं के समस्त घाती कर्म क्षय हो गए। एक मास की संलेखना के अन्तिम दिन चैत्र मास की पूर्णिमा को सभी मुनिवरों को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। शुक्ल ध्यान के चतुर्थ पद पर स्थित उन अयोगी केवलियों ने अवशिष्ट अघाती कर्मों को भी नष्ट कर मोक्षपद प्राप्त किया। इस प्रकार यह पर्वत प्रथम तीर्थरूप बना। भरत महाराजा ने शत्रुंजय के शिखर पर रत्न शिलामय चैत्य का निर्माण करवाया और पुण्डरीक गणधर की प्रतिमा सहित भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित की।[27]
श्री शत्रुंजय गिरिराज – वर्तमान तीर्थभूमि: भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित, शत्रुंजय गिरिराज जैन तीर्थों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यह तीर्थ भावनगर जिले के पालीताणा नगर में समुद्र तल से लगभग १९०० फीट की ऊँचाई पर स्थित है और पर्वत के शिखर में स्थित ९ टुंकों पर ८६३ से अधिक जिनालय हैं, जहाँ १७००० से अधिक प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। जिनालयों का इतना बड़ा समूह विश्व में और कहीं नहीं पाया जाता, जो इस तीर्थ को अद्वितीय और अनुपम बनाता है। शत्रुंजय गिरिराज की ख्याति शाश्वत तीर्थ के रूप में है, जिसका उल्लेख प्राचीन जैन साहित्य में भी मिलता है। वर्तमान समय में यहाँ की सबसे प्राचीन प्रतिमा गंधारिया चौमुखजी टुंक में स्थित श्री पुण्डरीक गणधर की है, जिसका निर्माण ई.सं. १०१३ में अम्बेयक श्रावक द्वारा करवाया गया था। तीर्थ के मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा का निर्माण ई. सं. १५३१ में कर्माशाह द्वारा किया गया था और प्रतिष्ठा आचार्य श्री विद्यामंडनसूरी सहित ५०० आचार्यों की उपस्थिति में संपन्न हुई थी।
10. अष्टापद गिरी
श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के अनुसार, अष्टापद गिरी प्रभु श्री ऋषभदेव के सर्वाधिक विचरण स्थलों में से एक था। इस पवित्र पर्वत पर उनका चार बार आगमन हुआ, जहाँ उन्होंने सुंदरी और अपने ९८ पुत्रों को दीक्षा प्रदान की थी। अपना मोक्ष समय निकट जानकर प्रभु श्री ऋषभदेव ने अष्टापद की ओर विहार किया और छह दिनों के निर्जल उपवास के बाद, वे और उनके साथ १०,००० मुनि भगवंत इस पवित्र पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त हुए।
अष्टापद का वर्णन इस ग्रंथ में अद्भुत रूप से मिलता है—
- यह पर्वत ८ योजन ऊँचा था, ऐसा प्रतीत होता था जैसे यह आकाश को छू रहा हो।
- इसका श्वेत रंग शरद ऋतु के बादलों या जमे हुए दूध की लहरों जैसा था, और यह हमेशा स्वच्छ और चमकदार रहता था, मानो देवता इसे लगातार साफ करते रहते हों।
- इसे 'स्वर्ग का दर्पण' कहा जाता था, जहाँ सूर्य की किरणें पड़ने पर यह उदयाचल पर्वत जैसा प्रतीत होता था।
- आर्द्र वृक्षों की छाया इस पर्वत को सदैव ढकती रहती थी, जो मयूर पंख के बड़े छत्र जैसी लगती थी।
- यहाँ विभिन्न प्राणी जैसे मृग, क्रौञ्च पक्षी, मयूर, खेचर, किन्नर स्त्रियाँ, भील पत्नियाँ, यक्षगण, और विद्याधर रमणियाँ निवास करते थे।
- ऐसा माना जाता था कि जो इस पर्वत पर एक रात्रि भी बिताता है, उसे मुक्ति की प्राप्ति होती है।
श्री अष्टापद गिरी – वर्तमान भूमि : श्री अष्टापद गिरी, आज के समय में एकमात्र विच्छेदित कल्याणक भूमि है । शास्त्रों के अनुसार, प्रभु ऋषभदेव के समय में यह पवित्र पर्वत अयोध्या नगरी के उत्तर दिशा में १२ योजन (लगभग १०८ मील या १७३ किलोमीटर) दूर स्थित था। श्री दिपविजयजी द्वारा रचित "अष्टापद पूजा" के अनुसार, श्री शत्रुंजय गिरिराज से अष्टापद तीर्थ की दूरी लगभग एक लाख पचासी हजार गांव थी। इन ऐतिहासिक और धार्मिक आधारों के अनुसार, अष्टापद पर्वत का संभावित स्थान हिमालय क्षेत्र में माना जा सकता है।
अभिधान चिंतामणि और कई दिगंबर जैन ग्रंथों में अष्टापद को कैलाश पर्वत के रूप में निर्वाण स्थल की मान्यता प्राप्त है। यह संकेत देता है कि कैलाश पर्वत को ही संभवतः अष्टापद के रूप में पहचाना गया है। जैन सेंटर ऑफ अमेरिका द्वारा किए गए शोध के अनुसार, वर्तमान में तिब्बत के क्षेत्र में अष्टापद के संभावित १०स्थान हैं। इनमें प्रमुख स्थानों के रूप में कैलाश पर्वत (कांगरीम्पोचे), कैलाश पर्वत के समीप बोनारी, बर्खा प्लेन्स, नंदी पर्वत, धर्मकींग नॉर्सिंग, गोम्बो फंग, ड्रिगुंग कांग्यू चोर्टेन, सेर्लुङ्ग गोम्पा, और ज्ञानड्रॉग मोनेस्ट्री के आसपास के क्षेत्र शामिल हैं।[29]
11. उपसंहार
प्रभु श्री ऋषभदेव भगवान की प्राचीन विचरण भूमियों का इतिहास जैन धर्म की गहन आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक धरोहर का परिचायक है। इन पवित्र स्थलों पर भगवान के कल्याणक, उपदेश, आदि घटनाओं ने न केवल उस समय के समाज को धार्मिक दृष्टि से समृद्ध किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बना।
प्राचीन काल में कौशल, मगध, काशी, सौराष्ट्र, और अष्टापद जैसे क्षेत्रों में भगवान के दिव्य चरण पड़े थे, जो आज भी अपनी ऐतिहासिक महत्ता के कारण धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इन स्थलों के वर्तमान स्वरूप, जैसे प्रयागराज में अक्षयवट, तिब्बत (हिमालय) के संभावित अष्टापद स्थान, और शत्रुंजय गिरिराज पर प्रतिष्ठित जिनालय, हमें जैन धर्म के गौरवशाली अतीत से जोड़ते हैं।
इन पावन स्थलों के माध्यम से जैन दर्शन की परंपराएं, धार्मिक अनुष्ठान, और तीर्थ यात्राएं आज भी जीवित हैं, जो हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ती हैं और धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। प्रभु ऋषभदेव की प्राचीन विचरण भूमियां, उनके वर्तमान रूपों में भी, जैन धर्म के शाश्वत संदेश और उसकी विरासत को संजोए हुए हैं।
11. उपसंहार
प्रभु श्री ऋषभदेव भगवान की प्राचीन विचरण भूमियों का इतिहास जैन धर्म की गहन आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक धरोहर का परिचायक है। इन पवित्र स्थलों पर भगवान के कल्याणक, उपदेश, आदि घटनाओं ने न केवल उस समय के समाज को धार्मिक दृष्टि से समृद्ध किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बना।
प्राचीन काल में कौशल, मगध, काशी, सौराष्ट्र, और अष्टापद जैसे क्षेत्रों में भगवान के दिव्य चरण पड़े थे, जो आज भी अपनी ऐतिहासिक महत्ता के कारण धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इन स्थलों के वर्तमान स्वरूप, जैसे प्रयागराज में अक्षयवट, तिब्बत (हिमालय) के संभावित अष्टापद स्थान, और शत्रुंजय गिरिराज पर प्रतिष्ठित जिनालय, हमें जैन धर्म के गौरवशाली अतीत से जोड़ते हैं।
इन पावन स्थलों के माध्यम से जैन दर्शन की परंपराएं, धार्मिक अनुष्ठान, और तीर्थ यात्राएं आज भी जीवित हैं, जो हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ती हैं और धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। प्रभु ऋषभदेव की प्राचीन विचरण भूमियां, उनके वर्तमान रूपों में भी, जैन धर्म के शाश्वत संदेश और उसकी विरासत को संजोए हुए हैं।
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विशेष : यह शोध पत्र, गुजरात सरकार एवं LVJST (लब्धि विक्रम जन सेवा ट्रस्ट) द्वारा आयोजित "ऋषभायन: भारतीय संस्कृति के पुरोद्धा" सेमिनार में १९ ओक्टोबर २०२४ के दिन पूज्य आचार्य श्री यशोवर्मसूरीश्वरजी महाराज साहेब आदि गुरुभगवंत एवं नामांकित विद्वान और शोधकर्ताओं के समक्ष प्रस्तुत किया गया था. इस लेख का प्रकाशन "ऋषभायन" ग्रन्थ में भी हुआ है।
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सन्दर्भ ग्रन्थ
[1] प्रभु तमारा पगले पगले, अर्पित शाह, पृ. १२० - १४४
[2] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, द्वितीय सर्ग, गा. ९०५- ९११
[3] जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग २, अंबालाल प्रेमचंद शाह, आ.क. पढ़ी, पृ. ४६६
[4] भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, प्रथम भाग, बलभद्र जैन, पृ. १५३
[5] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ९१२- ९२३
[6] श्री जिनप्रभसूरी विरचित सचित्र विविधतीर्थकल्प, मुनि रत्नत्रयविजय, मुनि रत्नज्योतविजय, पृ. ४७ -४९
[7] इंडियन एंटीक्वरी, १९७६-७७, पृ. ५२
[8] https://www.theweek.in/news/india/2020/05/22/ayodhya-archaeologists-yet-to-examine-artefacts-found-at-mandir-site.html
[9] जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग २, अंबालाल प्रेमचंद शाह, आ.क. पढ़ी, पृ. ४६६- ४६८
[10] दिगंबराचार्य श्री जिनसेन रचित श्री आदिपुराण, षोडश पर्व, गा. ३६८
[11] दिगंबराचार्य श्री जिनसेन रचित श्री आदिपुराण, षोडश पर्व, गा. १४८-१५६
[12] श्री आवश्यक निर्युक्ति सूत्र, गा. ३४१
[13] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. २६४-३०२
[14] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ३३०-३३४
[15] जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग २, अंबालाल प्रेमचंद शाह, आ.क. पढ़ी, पृ. ४६३ - ४६५
[16] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ३३५ - ३८५
[17] श्री आवश्यक निर्युक्ति, गा. ३३६ - ३३७
[18] भागवत. ५।५।३०/५६४
[19] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ३८९-३९८
[20] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ४८७ -५०३
[21] जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग २, अंबालाल प्रेमचंद शाह, आ.क. पढ़ी, पृ. ४६८-४६९
[22] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ३९२ - ३९५
[23] श्री ज्ञाताधर्मकथा सूत्र आगम में शत्रुंजय पर्वत का उल्लेख पांडवो की मोक्ष भूमि रूप में प्राप्त होता है और श्री अंतकृतदशांग सूत्र आगम में शत्रुंजय का उल्लेख श्री नेमिनाथ भगवान के शिष्यों की सिद्धभूमि रूप में प्राप्त होता है. श्री सारावली प्रकीर्णक सूत्र के उल्लेख में गिरिराज को पांडवो और पुण्डरीक स्वामी की मोक्ष भूमि के रूप में दर्शाया गया है।
[24] ६९८५४४०००००००००० बार
[25] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ३९६ - ४१६
[26] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ४१७ - ४२८
[27] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ४२९ - ४४६
[28] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ४५० -६३७
[29] अष्टापद महातीर्थ भाग १, डॉ रजनीकांत शाह, डॉ कुमारपाल देसाई, पृ. ११३
सन्दर्भ ग्रन्थ
[1] प्रभु तमारा पगले पगले, अर्पित शाह, पृ. १२० - १४४
[2] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, द्वितीय सर्ग, गा. ९०५- ९११
[3] जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग २, अंबालाल प्रेमचंद शाह, आ.क. पढ़ी, पृ. ४६६
[4] भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, प्रथम भाग, बलभद्र जैन, पृ. १५३
[5] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ९१२- ९२३
[6] श्री जिनप्रभसूरी विरचित सचित्र विविधतीर्थकल्प, मुनि रत्नत्रयविजय, मुनि रत्नज्योतविजय, पृ. ४७ -४९
[7] इंडियन एंटीक्वरी, १९७६-७७, पृ. ५२
[8] https://www.theweek.in/news/india/2020/05/22/ayodhya-archaeologists-yet-to-examine-artefacts-found-at-mandir-site.html
[9] जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग २, अंबालाल प्रेमचंद शाह, आ.क. पढ़ी, पृ. ४६६- ४६८
[10] दिगंबराचार्य श्री जिनसेन रचित श्री आदिपुराण, षोडश पर्व, गा. ३६८
[11] दिगंबराचार्य श्री जिनसेन रचित श्री आदिपुराण, षोडश पर्व, गा. १४८-१५६
[12] श्री आवश्यक निर्युक्ति सूत्र, गा. ३४१
[13] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. २६४-३०२
[14] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ३३०-३३४
[15] जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग २, अंबालाल प्रेमचंद शाह, आ.क. पढ़ी, पृ. ४६३ - ४६५
[16] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ३३५ - ३८५
[17] श्री आवश्यक निर्युक्ति, गा. ३३६ - ३३७
[18] भागवत. ५।५।३०/५६४
[19] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ३८९-३९८
[20] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, तृतीय सर्ग, गा. ४८७ -५०३
[21] जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग २, अंबालाल प्रेमचंद शाह, आ.क. पढ़ी, पृ. ४६८-४६९
[22] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ३९२ - ३९५
[23] श्री ज्ञाताधर्मकथा सूत्र आगम में शत्रुंजय पर्वत का उल्लेख पांडवो की मोक्ष भूमि रूप में प्राप्त होता है और श्री अंतकृतदशांग सूत्र आगम में शत्रुंजय का उल्लेख श्री नेमिनाथ भगवान के शिष्यों की सिद्धभूमि रूप में प्राप्त होता है. श्री सारावली प्रकीर्णक सूत्र के उल्लेख में गिरिराज को पांडवो और पुण्डरीक स्वामी की मोक्ष भूमि के रूप में दर्शाया गया है।
[24] ६९८५४४०००००००००० बार
[25] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ३९६ - ४१६
[26] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ४१७ - ४२८
[27] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ४२९ - ४४६
[28] श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, आचार्य श्री हेमचंद्र, षष्ठ सर्ग, गा. ४५० -६३७
[29] अष्टापद महातीर्थ भाग १, डॉ रजनीकांत शाह, डॉ कुमारपाल देसाई, पृ. ११३
अभ्यासपूर्ण आलेखन
ReplyDeleteVery indepth knowledge over the subject is your speciality & when same is combined with spirituality you personally have, outcome are such articles. Keep rocking us with such articles..
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